जितना बचपन सच

उतना ही प्रेम निवेदन भी सच है और प्रेम निवेदन सच है, तभी तो यह चंचल यौवन भी सच है यौवन जो अगर सच होंगे, तो प्रौढ़ वर्ष भी सच होंगे । और प्रौढ वर्ष जब सच होंगे, तो सच होगा उनके संग... कुछ गिरे दात और पोपल मुह और काँपती देह की थरक थरक । तुम गल़गल़ बुढीया बन जाओगी सीना ढलढल ढल जाएगा ये तनें उरुजों कि चोटि जब हाँफ रही होगी थककर और शाम रंग-ए-चमकीला बीता कल बन जाएगा और क्षीण कटी (सम्भव है) इतनी क्षीण न रह पाए सखी और कसे नितम्बों कि तान खतम हो जाए सखी । और सुँढ सी चिकनी जंघा में जब पढी दरारें होंगी हाँ और स्नेहा केश में चांदी कि अनगिनत कतारें होंगी हाँ और प्रिए सारे तब तक दुरी पर छिटक चुकें होंगे तुमसे जो होंगे वह कर्तव्य-बन्धे मृत्यु कि आश में गुमसुम से । तब तुम किसी मुँधेर पे बैठी घुप अंधेरा ताकोगी जिसमें गुम होंगे कितने पल जो बीत गए सालो पहले कुछ याद रहे, कुछ भुल गए नाती-पोतो कि पें-पें में कुछ निपट गए, कुछ झुल गए । फिर तुम गुमसुम सी सीढी पर से धीमी-धीमी सी उतरोगी एक जंग लगा संदुक खीँचकर कुछ-कुछ, कुछ-कुछ ढुँडोगी और हाथ पढेंगे ये पन्ने जो सालो पहते लिखे गए कुछ धुँधले अक्षर, शब्द अधुरें ओ सुने गए, कुछ पढ़े गए । कुछ धुँधली बातें, धुँधले मौसम धुँधली यादें तैरेंगी और मुस्कानों में भीगभीग पलकों पे साँसे तैरेंगी और, तभी कही एक तुतलाती -सी आवाज लगेगी "दादी माँ !" तुम गाल पे ढुलके आँसु को धीरे से पोंछकर उठलोगी जो बीत चुँका, वह क्यु बीता यह कसक साथ में लेकर तुम उस नन्हें बच्पन को गोदी में चिपका-चिपका के घुमोंगी । और तब आएगा याद तुम्हें कभी किसी ने बोला था, कि "यौवन इतना सत्य नहीं, वह एक बार ही आता है... एक बचपन ही है जो शृष्टि के आदी से अंत तक जाता है ।" यौवन तो सारा बीत चला पर बचपन होगा कहीं बचा 'गर ढुंढोगी, तो मिल जाएगा मेरे पन्नो से, मुड़ा-तुड़ा उसको अगर जिन्दा रख़ पाई इस बड़े काल के अंतर में तो प्रेम निवेदन सारे जिन्दा हो जाएंगे पल भर में । क्योंकि, जितना बचपन सच उतना ही प्रेम निवेदन भी सच है और प्रेम निवेदन सच है, तभी तो यह चंचल यौवन भी सच है यौवन जो अगर सच होंगे, तो प्रौढ़ वर्ष भी सच होंगे । और प्रौढ वर्ष जब सच होंगे, तो सच होगा उनके संग... कुछ गिरे दात और पोपल मुह और काँपती देह की थरक थरक ।

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